रविवार, 15 मार्च 2020

करोना युग का मुत्थु





नाम: मुत्थु| मेरा जन्म अभी हाल में करोना युग में हुआ है| इस युग की आपाधापी में जन्म का फायदा यह हुआ कि माता पिता मेरे नाम के आगे मिस्टर, मिस या अदर, और नाम के पीछे मिश्रा, अहमद, जोसफ या सिंह लगाना भूल गए| उम्मीद है, अब इस आम नागरिक की ज़िन्दगी आसानी से गुजर जाएगी क्युकी मुझे कोई अपने समाज के करोड़ या प्रतिशत का हिस्सा नहीं बना पायेगा|  चन्द्रमा की सोलह कलाओं की तरह जल्दी जल्दी आकार लेकर आज आपको अपने जीवन की एक सम्पूर्ण झलक देने की चेष्टा होगी| 

माँ के पेट एवम टेस्ट ट्यूब में  जो कहानियाँ सुनी थी उनसे तो लगता था कि दुनिया में  आते ही मेरी राजसी आवभगत होगी| पर पता नहीं क्यों, जन्म  के  बाद से ही मैं अपने आप को अलग थलग पा रहा हूँ नीले, हरे और सफ़ेद रंगों की पोशाकों से सजे लोगों से|  जिन माँ बाप को मुझे गोदी में लेके कुचि कू करना चाहिए था वोः पता नहीं क्यों, न तो मुझे अपनी शकल दिखा रहे है न ही मुझे छू रहे हैं| #फीलिंगऑफ़टच वाला अहसास भी कुछ होता है, यह तो मेरा दिल और दिमाग समझने से ही इनकार कर रहे है| मैंने काफी मान-मन्नौव्वल और ज़िद्दीपना दिखाकर  जब डीएनए सर्टिफिकेट हासिल किया तब जाकर असली माँ बाप का पता चला वर्ना अभी तक तो डॉक्टर, नर्स, अटेंडेंट, पेशेंट्स और विज़िटर्स ही अभिभावक लग रहे थे| भला हो इस करोना युग का जिसने, मास्क लगा के ही सही पर सबको एक ही प्रजाति का इंसान तो बना दिया|

सुना था इंसान सामाजिक प्राणी है, इसी विश्वास के साथ अपने नूतन माता पिता के साथ घर आगमन किया, पर पता चला कि घरवाले, पडोसी, दोस्त, रिश्तेदार सब भूमिगत हो गए हैं| समझ ही नहीं आ रहा कि इस दुनिया के ७.८ बिलियन लोगों को धरती निगल गयी या आकाश खा गया | वीरान स्कूल, पार्क, हस्पताल, सिमेना, मॉल, एयरपोर्ट, ट्रैन स्टेशन सब हड़प्पा मोहनजोदड़ो की हूबहू नक़ल लग रहे हैं| पार्क में जाता हूँ तो अगर कोई विरला नौनिहाल मेरी तरफ स्नेह से देखकर आगे कदम बढ़ाता भी है तो उसके माता पिता ग्रेट वाल ऑफ चाइना बनकर बीच में  प्रकट जाते है उसे मुझसे दूर करने के लिए|  #सोशलडिस्टैन्सिंग शायद इसी बला का नाम होगा!

टीम स्पोर्ट्स की जगह माँ बाप की मास्क के नीचे की शक्लें देखने की कोशिश करना, गमलों में पानी डालना, बालकनी से नीचे झांकना, किताबों के पन्ने फाड़ना और घर की दीवारों पर गेंद मारना या उनको रंगीन करना ही मेरे फेवरिट खेल बन कर रह गए है| मोबाइल, टीवी, एक्स बॉक्स बगैरह इसलिए नहीं  बोला क्युकी उन सब पर घर के बड़ों का कब्ज़ा है| उनको भी तो दिन भर घर पर रहकर ऑफिस और घर वालों को दिन भर बिजी होने का अहसास ("दिखावा "शब्द थोड़ा कठोऱ हो जाएगा न !) तो  दिलाना होता ही है न|

आपका मुत्थु करोना काल में जल्दी से वयस्क हुआ परन्तु बचपन से जवानी तक के सफर में परिवार वालों,  अध्यापकों और बॉस के थप्पड़ क्या होते है इससे कभी दो चार होना हुआ ही नहीं| जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही आपकी तरह मुझे भी प्रेम हुआ परन्तु डेट से लेके, इंगेजमेंट और शादी सब वर्चुअल ही हुई| इस सब का फायदा देश को जनसँख्या निवारण में बहुत हुआ क्युकी एक परखनलीय गुड न्यूज़ के बाद मुत्थु की अब औकात नहीं, और मास्क और सैनिटाइज़र का खर्चा वहन कर पाने की| 

हम इंसानों की पुरानी आदतें और रीती-रिवाज़ तो जल्दी बदलते नहीं सो करोना युग के बदले परिवेश में भी एक दूसरे के स्पेशल दिनों पर गिफ्ट खरीदना ही पड़ रहा है| पहले गिफ्ट देते थे पर अब, उनके लिए गिफ्ट खरीद कर अपने पास ही रखना पड़ रहा है और तोहफे की फोटो भेजनी पद रही है जिससे संबंधों में गर्माहट बनी रहे| रिश्तों में घरेलू लड़ाइयां तो इस काल में भी हो रही है परन्तु अब लड़ना वीडियो कॉल पर पड़ता है और उसके बाद घर के कैमरा से नाराज़गी, भाव-भंगिमा और रोना धोना लगातार स्ट्रीम करना पड़ता है, जिससे लड़ाई की गरिमा, वास्तिविकता और समयसीमा का सही निर्धारण किया जा सके|  

करोना काल के तीसरे चरण के आते आते हर अधेढ़ बच्चे की तरह मुत्थु को भी अपने वीरान शहर की जगह अपने दूर-दराज़ बसे गाँव की ताज़ी हवा और वहां दशकों से दूर रहने वाले माँ-बाप ज़्यादा प्यारे लगने लगे| किसी ज्ञानी ने ठीक ही कहा है - आपदा में अपनों का इस्तेमाल न किया तो इस इंसानी जीवन का क्या फायदा! 

संसार के चक्र को पूरा करते हुए मुत्थु ने इस करोना युग में जब इस नश्वर शरीर को त्यागा तो कोई मिश्रा, अहमद, जोसफ या सिंह कन्धा देने, जलाने और या दफ़नाने नहीं आया| आये तो वही हरी नीली और सफ़ेद पोशाकों वाले हस्पताल के इंसान









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